धीरूभाई अंबानी बहुत ज्यादा कंजूस नहीं थे. लेकिन वे इतने फुजूलखर्च भी नहीं थे कि अपने बेटों मुकेश और अनिल की शादियों पर उतना पैसा फूंकना गवारा करते जितना कि उन के बड़े बेटे मुकेश ने अपने छोटे बेटे अनंत अंबानी की शादी पर फूंका. अगर पैसा खर्च करने और पैसा उड़ाने या फूंकने के बीच कोई लाइन नहीं खींची जा सकती तो यह तय कर पाना मुश्किल है कि मुकेश अंबानी ने अनंत अंबानी की शादी में पैसा खर्च किया है या फूंका है. अंदाजा है कि इस शाही शादी पर कई हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए जो मुकेश अंबानी की अकूत दौलत का एक फीसदी हिस्सा भी नहीं है.
धीरूभाई अंबानी के बारे में हर कोई जानता है कि अपने कैरियर के शुरुआती दौर में वे बहुत छोटे लैवल पर मुंबई में मसालों का कारोबार करते थे. वे एक गरीब और जमीन से जुड़े कारोबारी थे जिन के बारे में यह भी कहा जाता है कि यह शख्स मिट्टी से भी पैसा बना लेता है.
आदमी जब धीरूभाई जितना बड़ा और कामयाब हो जाता है तो उस से जुड़े कई झूठेसच्चे किस्से कहानियां भी मार्केट में चलन में आ जाते हैं. जुझारू और मेहनती धीरूभाई इस के अपवाद नहीं रहे जिन का खड़ा किया आर्थिक साम्राज्य दिनोंदिन बढ़ता गया और मुकेश अंबानी ने तो उसे शिखर पर पहुंचा दिया.
मुकेश अंबानी ने अपने बेटे की शादी पर जो भी खर्च किया उस के चर्चे विदेश में भी हो रहे हैं. इस शाही शादी पर भारतीय मीडिया का रुख बेहद तटस्थ रहा क्योंकि कोई भी अपने सब से बड़े विज्ञापनदाता की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता था. चैनल्स ने राधिका मर्चेंट के लहंगे, नीता अंबानी की ज्वैलरी और अनंत अंबानी की ड्रैसेज कैसी थीं जैसे विषयों को हाईलाइट किया जो पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों (अगर कहीं बचे हों तो) से मेल न खाती एक तरह से फुजूल की बातें थीं.
विदेशी मीडिया क्या बोला
Diese Geschichte stammt aus der August First 2024-Ausgabe von Sarita.
Starten Sie Ihre 7-tägige kostenlose Testversion von Magzter GOLD, um auf Tausende kuratierte Premium-Storys sowie über 8.000 Zeitschriften und Zeitungen zuzugreifen.
Bereits Abonnent ? Anmelden
Diese Geschichte stammt aus der August First 2024-Ausgabe von Sarita.
Starten Sie Ihre 7-tägige kostenlose Testversion von Magzter GOLD, um auf Tausende kuratierte Premium-Storys sowie über 8.000 Zeitschriften und Zeitungen zuzugreifen.
Bereits Abonnent? Anmelden
कंगाली और गृहयुद्ध के मुहाने पर बौलीवुड
बौलीवुड के हालात अब बदतर होते जा रहे हैं. फिल्में पूरी तरह से कौर्पोरेट के हाथों में हैं जहां स्क्रिप्ट, कलाकार, लेखक व दर्शक गौण हो गए हैं और मार्केट पहले स्थान पर है. यह कहना शायद गलत न होगा कि अब बौलीवुड कंगाली और गृहयुद्ध की ओर अग्रसर है.
बीमार व्यक्ति से मिलने जाएं तो कैसा बरताव करें
अकसर अपने बीमार परिजनों से मिलने जाते समय लोग ऐसी हरकतें कर या बातें कह देते हैं जिस से सकारात्मकता की जगह नकारात्मकता हावी हो जाती है और माहौल खराब हो जाता है. जानिए ऐसे मौके पर सही बरताव करने का तरीका.
उतरन
कोई जिंदगीभर उतरन पहनती रही तो किसी को उतरन के साथ शेष जिंदगी गुजारनी है, यह समय का चक्र है या दौलत की ताकत.
युवतियां ब्रेकअप से कैसे उबरें
ब्रेकअप के बाद सब का अपना अलग हीलिंग प्रोसैस होता है लेकिन खुद से प्यार करना और समय देना सब से जरूरी होता है.
इकलौते बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्रोटैक्ट करना ठीक नहीं
जिन परिवारों में इकलौता बच्चा होता है वे बच्चे की सुरक्षा के प्रति बहुत सजग रहते हैं. उसे हर वक्त अपनी निगरानी में रखते हैं. लेकिन बच्चे की अत्यधिक सुरक्षा उस के भविष्य और कैरियर को तबाह कर सकती है.
मेले मामा चाचू बूआ की शादी में जलूल आना
शादी कार्ड में जिन के द्वारा लिखवाया गया होता है कि 'मेले मामा/चाचू की शादी में जलूल आना' उन प्यारेप्यारे बच्चों के लिए सब से बड़ी सजा हो जाती है कि वे देररात तक जाग सकते नहीं.
गलत हैं नायडू स्टालिन औरतें बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं
महिलाएं बड़ी बड़ी बाधाएं पार कर उस मुकाम पर पहुंची हैं जहां उन का अपना अलग अस्तित्व, पहचान और स्वाभिमान वगैरह होते हैं. ऐसा आजादी के तुरंत बाद नेहरू सरकार के बनाए कानूनों के अलावा शिक्षा और जागरूकता के चलते संभव हो पाया. महिलाओं ने अब इस बात से साफ इनकार कर दिया कि वे सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन नहीं बने रहना चाहती हैं.
सांई बाबा विवाद दानदक्षिणा का चक्कर
वाराणसी के हिंदू मंदिरों से सांईं बाबा की मूर्तियों को हटाने की सनातनी मुहिम फुस हो कर रह गई है तो इस की अहम वजह यह है कि हिंदू ही इस मसले पर दोफाड़ हैं. लेकिन इस से भी बड़ी वजह पंडेपुजारियों का इस में ज्यादा दिलचस्पी न लेना रही क्योंकि उन की दक्षिणा मारी जा रही थी.
1947 के बाद कानूनों से बदलाव की हवा भाग-5
1990 के बाद का दौर भारत में भारी उथलपुथल भरा रहा. एक तरफ नई आर्थिक नीतियों ने कौर्पोरेट को नई जान दी, दूसरी तरफ धर्म का बोलबाला अपनी ऊंचाइयों पर था. धार्मिक और आर्थिक इन बदलावों ने भारत के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को बदल कर रख दिया, जिस का असर संसद पर भी पड़ा.
न्याय की मूरत सूरत बदली क्या सीरत भी बदलेगी
भावनात्मक तौर पर 'न्याय की देवी' के भाव बदलने की सीजेआई की कोशिश अच्छी है, लेकिन व्यवहार में इस देश में निष्पक्ष और त्वरित न्याय मिलने व कानून के प्रभावी अनुपालन की कहानी बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं है.