CATEGORIES
Categorías
सुर्खियां हटीं, तो सक्रियता छूटी
स्त्री सशक्तीकरण के सरकारों की तमाम जुमलेबाजी के बावजूद बलात्कार की कुसंस्कृति और पितृसत्ता से निपटने में पूरी कानून-व्यवस्था लगातार नाकाम
बलात्कार का समाज-शास्त्र
बलात्कार की एक और घटना ने इस बार फिर लोगों को उद्वेलित किया लेकिन क्या अपराध रोकने के लिए इतना काफी
यौनाचार के आरोप
हेमा कमीशन की रिपोर्ट से मलयालम फिल्म जगत में शुरू हुए नए-नए खुलासे
बलात्कार की 'सत्ता'
बलात्कार और यौन हिंसा के मामलों में दंड की दर हर दशक में लगातार घटती रही है, ऐसे अपराधों पर प्रतिक्रिया और इंसाफ देने में राज्य लगातार नाकाम होता गया है
यौन हिंसा की कुकथा
तारीख बदलती है, शहर या राज्य बदलता है, बस बढ़ती जाती है क्रूरता और जघन्यता, बलात्कार के बाद सजा में देरी ऐसे मामलों की संख्या में लगातार इजाफा ही कर रही
कितना चटकेगा चंपाई रंग
आसन्न राज्य चुनावों के ऐन पहले झामुमो से टूट कर भाजपा के पाले में पहुंचे पूर्व मुख्यमंत्री कितने प्रभावी
नई नीति का तोहफा
बिहार फिल्म प्रोत्साहन नीति 2024 से बदल सकती है सूरत
नतीजों का भी बेसब्र इंतजार
'इंडिया' ब्लॉक में सीटों के बंटवारे को लेकर असमंजस, भाजपा को जम्मू में भी कड़ी चुनौती
अधूरेपन की टीस
चुनाव के वक्त प्रदेश की अपनी राजधानी का मुद्दा भी विमर्श का हिस्सा बने
चुनौती दोनों तरफ कई
सत्तारूढ़ भाजपा को कल्याणकारी योजनाओं से उम्मीद, तो कांग्रेस लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित, बाकी पार्टियों के लिए संकट
नृत्य कला का ध्रुव तारा
बीते तीन अगस्त को भारतीय नृत्य के आकाश का चमकला सितारा अस्त हो गया। भरतनाट्यम नृत्य की साधना में जीवन अर्पित कर नृत्य के रस कलश को भरने वाली यामिनी कृष्णमूर्ति का जाना भारतीय नृत्य जगत की अपूरणीय क्षति है । इसे चिरकाल तक महसूस किया जाता रहेगा।
मेडल... बस सौ ग्राम दूर!
विनेश फोगाट की दुर्भाग्यपूर्ण घटना और अपेक्षा से कम पदकों की आमद ने दिल तोड़ा तो हॉकी की चमत्कारी जीत से उत्साह बढ़ा
संविधान भारत के स्वधर्म की अभिव्यक्ति है
यह संसद का चुनाव नहीं है, यह संविधान सभा का चुनाव है।\" हाल के चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान जितनी भी जनसभाओं में मुझे बोलने का मौका मिला, मैंने शायद हर बार इस वाक्य का इस्तेमाल किया था। जब भी बोला श्रोताओं में, खास तौर पर खास तरह के श्रोताओं में गहरी सहमति का भाव आता था। सबको एहसास था कि मामला एक सामान्य संसदीय चुनाव जैसा नहीं था, मामला बहुत गहरा था और संविधान सभा का रूपक इस गहराई की तरफ इशारा करता था।
संविधान की अराजनीतिक राजनीति
संविधान को 2024 के संसदीय चुनावों ने राजनीति का केंद्र-बिन्दु बना दिया है। यूं तो संविधान और व्यावहारिक राजनीति के बीच हमेशा से ही एक रिश्ता रहा है, लेकिन इस बार संविधान राजनीतिक उपयोगिता की विषय-वस्तु बनने के बजाय स्वयं में एक सशक्त राजनीतिक विचार बन कर उभरा है।
"अपनी स्वतंत्रता एक महानायक के चरणों में समर्पित न करें"
मैं समझता हूं कि संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों- जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल।
संविधान के लिए लोग ही लड़ेंगे
संविधान के दर्शन और मनुष्यता के दार्शनिक संकट से अपनी बात की शुरुआत करना चाहूंगा। उसके बाद भारत के संविधान को लेकर जो चीजें घट रही हैं, मैं उस पर आऊंगा। हम जिस संकट पर यहां बात कर रहे हैं, वह सिर्फ भारत की परिस्थिति नहीं है, पूरी मानव प्रजाति का मामला है। इतिहास में बहुत बार मानवता ऐसे दार्शनिक संकटों से गुजरी है जब पूरे मानवीय अंतस को ही अलग-अलग कारणों से धक्का पहुंचता है।
संविधान का आधार हैं अर्जित मूल्य
पूरी दुनिया में बीसवीं सदी के आरंभ से लगभग 1960 तक अलग-अलग जगह संवैधानिक लोकतंत्र सरकार के रूप में प्रस्थापित होता रहा। अफ्रीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, भारत, एशिया, यूरोप के कुछ देशों में जहां कहीं राजा थे, उनकी जगह संविधान के साथ लोकतंत्र आया।
संविधान गया, तो लोकतंत्र नहीं बचेगा
लोकतंत्र और संविधान का अभिन्न रिश्ता है। हर देश में संविधान के निर्माण और उसे लो अपनाने के कई कारण होते हैं। मगर दो कारण प्रमुख हैं। पहला कारण तो वह है, जिसका परिणाम दुनिया में हिंदुस्तान का अहम योगदान है। हमारी विविधता ज्यादा है और हम पराधीन थे, तो इन दोनों का हल निकालने के लिए एक ऐसे दस्तावेज की दरकार थी जो सबको समेटे, जनतंत्र, प्रजातंत्र की स्थापना करे, हम किसी के अधीन न हों, हम किसी राजा-महाराजा के तहत न रहें।
हसीना का पतन भारत की चिंताएं
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में अब भारत का कोई हितैषी नहीं बचा, यह सबसे बड़ी दिक्कत, फिलहाल अगले घटनाक्रम का इंतजार है
तीन हफ्ते बनाम सोलह साल
अवामी लीग के भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन कैसे तख्तापलट तक पहुंच गया
त्रासदी का अध्याय साहस के प्रसंग
बाढ़ में बह गई बस्तियां ही बस्तियां, मौत हौसला फिर भी कम कर न सकी, केरल की भीषण तबाही के बीच जीवन की उम्मीद की कहानी
जैसा समाज वैसे बाबा
अब भारतीय सिनेमा में परदे पर बाबाओं को फर्जी, ठग और खलनायक के रूप में दिखाना आम बात
लेखक की पाठकीय जीवनी
दशकों के एकत्रित किए गए अनुभवों से बने व्यक्तिगत लेखनशास्त्र को साझा करती सुधांशु गुप्त की 'पुस्तक साहित्य में 'अप्रोच' को रेखांकित करती है।
विरोधाभासों के बीच स्त्री अस्मिता के प्रश्न
ऋषि च्यवन और सुकन्या पर केंद्रित उपन्यास वैसे, तो पौराणिक कथा पर आधारित है लेकिन यह वर्तमान स्त्री की स्थिति को भी रेखांकित करता है।
पूजा कांड से कठघरे में आयोग
फर्जी प्रमाण-पत्र के जरिए पास करने वाली अभ्यर्थी के पकड़े जाने पर यूपीएससी की कार्यप्रणाली पर लगे सवालिया निशान
पुराना सवाल, नया संदर्भ
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से प्रतिबंध हटने के बाद देखना दिलचस्प होगा कि सरकार को इससे बढ़त कैसे मिलेगी
रायगढ़ में सती?
पति की मौत के बाद गुमशुदा पत्नी को लेकर तरह-तरह की कहानियां
'भाजपा को जम्मू-कश्मीर का राजनैतिक पुनर्गठन महंगा पड़ा'
माकपा के राज्य सचिव एम.वाइ. तारिगामी जम्मू-कश्मीर की बेहद खास राजनैतिक शख्सियत हैं।
चुनाव हुए तो असेंबली होगी लाचार
हाल में पुनर्गठन कानून में किए गए बदलाव से लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यकारी अधिकारों में इजाफा किया गया, जिससे विधानसभा हो जाएगी शक्तिहीन
कश्मीर सूरते हाल
अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाए जाने के पांच साल पूरे, छह साल से असेंबली भंग और जम्मू आतंकवाद का नया ठिकाना बना, पुनर्गठन कानून में फेरबदल से विधायिका हुई पंगु, चुनावों का इंतजार