पत्थरों से ले कर पेड़ों, जानवरों तक पूजने वाले भारत में अपने बुजुर्गों का खयाल नहीं रखा जा रहा है. कभी मांबाप को भगवान मानने वाले भारत के बेटे अब उन्हें बोझ मानने लगे हैं और उन पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं.
आधुनिक होते भारत की बदलती जीवनशैली एक बार तो आंखों में चमक भर देती है किंतु जब हकीकत से सामना होता है तो स्थिति काफी भयावह नजर आती है. परिवार और समाज में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाले बड़ेबुजुर्ग आज उपेक्षित ही नहीं, बल्कि उन की स्थिति काफी दयनीय और बेसहारा भी हो चली है.
विकास की दौड़ में आगे निकल चुके बड़े शहरों की हालत वृद्धों के सम्मान और महत्त्व के मामले में काफी खराब है. सांस्कृतिक पतन कहें या महत्त्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में मैट्रो शहरों की आबादी अपने बड़ेबुजुर्गों के सम्मान के मामले में नकारात्मक साबित हो रही है. कई लोगों का कहना है कि गांव में उन की स्थिति यहां से अच्छी है. परंतु आएदिन अखबारों में पढ़ने को मिल रहा है कि लड़का मोटरसाइकिल चाहता था, स्मार्ट मोबाइल चाहता था. जब परिवार के बड़ों ने मना किया तो उन पर कातिलाना हमला कर दिया और लड़का भाग गया. कई बार देखने में आया है कि बुजुर्गों के साथ नौकरों से भी बुरा बरताव किया जाता है.
उदारीकृत भारत के नवयुवक बुजुर्गों के साथ अपनी हिंसात्मक और उपेक्षात्मक व्यवहार के लिए जाने जाएंगे. क्या इसे कभी सोचा भी जा सकता था? परिवार के भीतर व्यक्तिगत जीवन और स्वतंत्रता की तलाश को प्रमुखता दी जाने लगी है, जिस के परिणामस्वरूप जिन बच्चों का लालनपोषण अभिभावक बड़े लाड़प्यार से करते हैं, बड़े हो जाने के बाद उन्हीं बच्चों को उन के साथ रहना तक पसंद नहीं आता.
यही नहीं, उन्हें तो पसंद नहीं करते परंतु उन की संपत्ति उन्हें चाहिए. भौतिकवाद इस कदर लोगों की मानसिकता पर हावी हो गया है कि अब अपनों का बोध ही समाप्त हो गया है. आर्थिकतौर पर सक्षम होने और आत्मनिर्भर होने के बावजूद वे उन की प्रौपर्टी को हड़पना चाहते हैं क्योंकि बिना मेहनत के वैसे तो उन्हें मिल नहीं सकता. उसे पाने का यही तरीका है.
अपनों ने ही लूटा
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