गठबंधन सरकारों को चलाने की बात हो या दलबदल की या फिर कमजोर बहुमत की, इन हालात में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका खास हो जाती है. बिहार में जब जदयू नेता नीतीश कुमार को 9वीं बार बहुमत साबित करने का समय आया तो सब से पहले विधानसभा के पहले वाले अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी को हटाने का प्रस्ताव पेश हुआ. पुराने विधानसभा अध्यक्ष राजद के समर्थक माने जाते थे. उन की जगह पर नए विधानसभा अध्यक्ष के रूप में नंद किशोर यादव को चुना गया. इस के बाद नीतीश कुमार का बहुमत साबित होना पक्का हो गया था. नंद किशोर यादव 7 बार के विधायक हैं. मंत्री रहे हैं. वे आरएसएस के करीबी भी हैं.
अगर राजद के 3 विधायक विधानसभा अध्यक्ष को हटाने के प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान करते तो विश्वास मत में पड़े वोटों की संख्या 122 हो जाती. वैसी स्थिति में राजग के 5 विधायकों के अलावा राजद पक्ष के 2-3 विधायक पाला बदल लेते तो सरकार बहुमत हासिल नहीं कर सकती थी. राजद के 3 विधायकों- चेतन आनंद, नीलम देवी और प्रह्लाद यादव के पाला बदलते ही राजग के आधा दर्जन नाराज चल रहे विधायक नरम पड़ गए. उन को लगा कि अब उन के बिना भी सरकार बन जाएगी इन विधायकों ने सदन का रुख कर लिया. जदयू के एक विधायक दिलीप राय इस के बाद भी मतदान में शामिल नहीं हुए.
राजग यानी एनडीए का विधानसभा अध्यक्ष बनते ही जदयू के नाराज विधायकों को यह पता चल गया कि अब वे जदयू को तोड़ नहीं पाएंगे. ऐसे में पार्टी के साथ रहने में ही भलाई है. जब इस तरह का बहुमत साबित करना होता है तब विधानसभा अध्यक्ष की अहमियत बढ़ जाती है. इसीलिए बहुमत साबित करने वाला दल अपनी पसंद का विधानसभा अध्यक्ष चाहता है. उत्तर प्रदेश में जब मायावती यानी बसपा- भाजपा की गठबंधन वाली सरकार बनती थी तब भाजपा केशरीनाथ त्रिपाठी को ही विधानसभा अध्यक्ष बनाती थी. वे दलबदल कानून के सब से बड़े जानकार और वकील थे. वे पार्टी को संकट से निकालने का काम करते थे. ऐसे उदाहरण देशभर में भरे पड़े हैं.
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